सुषुम्नैव परंध्यानं सुषुम्नैव परागतिः!


कुण्डलिनी साधना के प्रसंग में सुषुम्ना का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान आता है। योगशास्त्रों में इसकी महिमा और शक्ति का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। साथ ही इड़ा और पिंगला के साथ इसके समन्वय की भी सुविस्तृत चर्चा की गई है। कुण्डलिनी शक्ति के जागरण में इन तीनों के स्वरूप एवं उपयोग को समझ लेना आवश्यक है।


मेरुदण्ड-स्पाइनल कालम को प्राण प्रवाह का राजमार्ग-महामार्ग माना गया है। धरती से स्वर्ग तक पहुँचने का देवयान मार्ग-सुषुम्ना अपनी सहयोगी नाड़ियों इड़ा-पिंगला के साथ इसी में अवस्थित होती है। दर्शनोपनिषद् में इसकी स्थिति का वर्णन करते हुए कहा गया है कि-


पृष्ठम ध्यस्थिते नाम्ना वीणादण्डेन सुव्रत। सहमस्तकपर्यन्तं सुषुम्ना सुप्रतिष्ठिता॥


अर्थात् पीठ के पीछे भाग में वीणा दंड में मस्तक पर्यन्त सुषुम्ना का विस्तार है।


देहस्योपाधि रुपा सा सुषुम्ना मध्यरुपिणी। दिव्यमार्गमिदं प्रोक्तममृतानंद कारकम्॥


-श्ि संहिता संहिता अर्थात् श्रीर के मध्य में सुषुम्ना अवस्थित है। यही देवमार्ग है। इसी के मध्य में अमृत आनन्द की प्राप्ति होती है।


सुषुम्ना साधन का महात्म्य बताते हुए तंत्रसार में कहा गया है :-


सुषुम्नैव परं तीर्थम् सुषुम्नैव परोजपः। सुषुम्नैव परं ध्यानं सुषुम्नैव परा गतिः॥


अर्थात् सुषुम्ना साधना से बड़ा तीर्थ, जप, ध्यान आदि और कुछ नहीं है। सुषुम्ना ही परमगति है।


दर्शनोपनिषद् में आगे कहा गया है :-


‘अश्वमेध सहस्त्राणि वाजपेय शतानि च।’


अर्थात् सुषुम्ना साधना का फल अश्वमेधों, वाजपेय यज्ञों से अधिक है।


इस तरह सुषुम्ना के महत्व का वर्णन अनेक ग्रन्थों में किया गया है। उनमें उसके क्षमता एवं गरिमा का आभास मिलता है। शांडिल्योपनिषद् में उसे ‘विश्वधारिणी’ कहा गया है। योगशिखोपनिषद् में उसे ‘समस्त दूषणों से रहित ब्रह्मरूप’ बताया गया है। अद्वैतोपनिषद् में उसे ‘प्राणियों की अन्तरात्मा’ कहा है। दर्शनोपनिषद्, षट्चक्र निरूपण आदि में सुषुम्ना के स्वरूप और कार्य का विस्तृत वर्णन है। षट्चक्रों की उसी के अंतर्गत मानी गई है। शिव संहिता के अनुसार सुषुम्ना के ऊर्ध्व शीर्ष पर सहस्रार चक्र है और अधोभाग में मूलाधार चक्र। मूलाधार में ब्रह्मयोनि है जहाँ काम बीज का स्थान है। यहाँ एक ज्योति जलती है जिसे ज्वलन्त रखने के लिए सहस्रार में अमृत स्नेह टपकता है।


दर्शनोपनिषद् एवं अन्य उपनिषदों के वर्णन से सिद्ध होता है कि मेरुदण्ड रज्जु स्पाइनल कार्ड ही सुषुम्ना है। दर्शनोपनिषद् 4/5-10 में सुषुम्ना को ही ब्रह्मनाड़ी कहा गया है और उसे रीढ़ की हड्डियों के छिद्र में स्थित बताया गया है। यही मूलाधार से सहस्रार तक फैली हुई है। जहाँ उसका अन्त होता है वह मस्तिष्क का चौथा खोखला भाग - फोर्थ वेन्ट्रिकल ही ब्रह्मरंध्र है सुषुम्ना के खोखले भाग में ही प्रमुख नाड़ियों की सत्ता है। यो उस क्षेत्र में प्रत्यक्ष आँखों से तथा सूक्ष्म दर्शी यंत्रों की सहायता से देखी जा सकने वाली प्रत्यक्ष नलिकाओं एवं तंतुओं की संख्या भी कम नहीं है। ‘संगीत रत्नाकर’ और ‘सहानुभूतिक’ मेरुतंत्र’ ग्रंथों में सुषुम्ना को 900 महत्वपूर्ण नाड़ियों से घिरा हुआ बताया गया है। वे दासियाँ और सुषुम्ना रानी है।


यही सही है कि जिस प्रकार मस्तिष्क के केन्द्र नीचे केन्द्रों को प्रेरणा-एक्साइटेशन भेजते हैं, उसी प्रकार निचले केन्द्र भी मस्तिष्क को न केवल जानकारियाँ भेजते हैं, वरन् उत्तेजनाएं एवं प्रेरणाएं भी भेजते हैं, मस्तिष्क को नाड़ी मण्डल द्वारा भेजे जाने वाले उत्तेजनात्मक संकेत-प्रवाहों को-फीडबैक एक्साइटेशन कहते हैं।


मस्तिष्क बहुसमर्थ तो है पर सर्वसमर्थ नहीं से भी आवश्यक उत्तेजना एवं प्रेरणा चाहिए। यह जाग्रत कुँडलिनी संस्थान से भेजे जा सकते है। जिस प्रकार जनरेटर के चुम्बकीय क्षेत्र को एक्साइटिंग करन्ट द्वारा सशक्त बनाने से उच्च विभवयुक्त हाईपोटैन्शियल विद्युत पैदा होने लगती है। उसी प्रकार मूलाधार क्षेत्र से ऊपर भेजे जाने वाले उत्तेजक प्रवाह मस्तिष्क में अति संवेदनशीलता-सुपर सैन्सेशन पैदा करने में समर्थ होते है।


मस्तिष्क को विद्युतीय संचार व्यवस्था ही सक्रिय बनाती हैं। इस प्रणाली को ‘रैटीक्युलर एक्टिवेटिंगसिस्टम’ कहते है। यह विद्युत धाराएं ही मस्तिष्क के विभिन्न केन्द्रों को सजग एवं सक्रिय बनाये रखती है। वैज्ञानिकों का मत है कि मस्तिष्क के गहन अन्तराल में-सेन्ट्रनाकिफैलिक सिस्टम में यह विद्युत धाराएं प्रसुप्त अवस्था में रहती है। उनका बहुत थोड़ा अंश ही काम में आ पाता हैं यदि इस प्रसुप्त प्रणाली को जाग्रत किया जा सके तो अपना यही मस्तिष्क सक्रियता, क्षमता एवं स्तर की दृष्टि से आश्चर्यजनक साधना इन प्रयोजनों की पूर्ति में अत्यधिक सहायक सिद्ध हो सकती है।


सुषुम्ना-ब्रह्मनाड़ी के संबंध में योगियों और शरीर शास्त्रियों की अलग-अलग व्याख्याएं रही हैं। साधना विज्ञान के प्राचीन ग्रंथों में समूचे मेरुदण्ड को ही सुषुम्ना कहा गया है। उसके पोले भाग में विशेष क्षमताएं रहने के संबंध में तो जानकारी थी पर वह समूचा संस्थान अति संवेदनशीलता है और भीतरी तथा बाहरी परतों में अन्योन्याश्रय संबंध है। इसलिए पृथक् वर्गीकरण करने की आवश्यकता नहीं समझी गई है। पूर मेरुदण्ड को ही सुषुम्ना संस्थान माना गया। विद्युत या प्राण संचार का प्रवाह खोल भी उस भीतरी भाग में ही चलता है पर बाहरी खोल भी उस संदर्भ में कम संवेदनशील, कम सहायक या कम प्रभावित नहीं है।


आधुनिक शरीरशास्त्र - एनाटामी क मत से मेरुदण्ड के भीतर एक सूक्ष्म नली का अस्तित्व है लिसे ‘केनालिससेन्ट्रेलिस’ कहते हैं। यह मेरुदण्डीय और मस्तिष्कीय तत्वों से मिलकर बनी है। यह मेरुदण्डीय और मस्तिष्कीय तत्वों से मिलकर बनी है। सुषुम्ना यही है। इस क्षेत्र में अनेकों संचार प्रणालियाँ काम करती है। जिनमें से एक ‘केनेलिससेंटे्रस’ भी है। इसे ही योगशास्त्र की दृष्टि से ब्रह्मनाड़ी कहा जा सकता है।


मेरुदण्ड की संचार प्रक्रिया का संवाहक क्षेत्र ‘पैरासिम्पैथेटिक’ और ‘सिम्पैथेटिक’ के नाम से जाना जाता है। यह मेरुदण्ड के भीतरी भाग में स्थित होता है। इसे ‘गैंग्लिया’ कहते हैं। इसे नाड़ी कोशिकाओं का केन्द्रिय गुच्छक भी कह सकते हैं। इस क्षेत्र में प्राण संचार गुच्छक भी कह सकते है। इस क्षेत्र प्राण संचार प्रणाली को अपना काम करने के लिए आवश्यक साधन प्राप्त होते है।


मस्तिष्क से गुदा-उपस्थ भाग तक के क्षेत्र में फैले हुए अनेक महत्वपूर्ण संस्थानों का योग ग्रंथों में उल्लेख हुआ है। यों वे सभी सूक्ष्म शरीर से संबंधित हैं तो भी उनकी स्थूल शरीर के कुछ संस्थानों के साथ सीधी संगति दीखती और स्पष्ट संबंध दिखाई पड़ता है। थियोसोफी की मान्यताओं के अनुसार सुषुम्ना को वज्रा-बाह्य आवरण एवं माध्यमिक आवरण है। इसे ‘ड्यूरामैटर’ एवं ‘पा मैटर’ कह सकते हैं। चित्रा-मस्तिष्कीय धूसर पदार्थ- ‘ग्रे मैटर’ है। ब्रह्मरंध्र केन्द्रिय छिद्र-सेन्ट्रल कैनाल। अमृत-प्रमस्तिष्कीय द्रव-सेरिब्रो-स्पाइनल फलूइड। इड़ा-बाई सहानुभूतिक रज्जु-राइट सिम्पैथिक टं्रक्स। त्रिवेणी-सुषुम्ना शीर्ष-मेडुला ओंब्लागेटा। शंकु शिखर-सुमेरु-पान्स को कह सकते हैं।


योग विद्या विशारदों का कहना है कि मेरुदण्ड सुषुम्ना के आखिर में ‘कोनस मेडुलरिस’ नाम एक स्थान है जहाँ प्राण ऊर्जा का विशाल भण्डार छिपा है। जीवन शक्ति अथवा चुम्बकीय विद्युत का विपुल भण्डार यही है। इसे खोजने और सक्रिय बनाने के वैज्ञानिकों प्रयास भी किये जा रहे है। शरीर शास्त्रियों के अनुसार जिस प्रकार वैज्ञानिक जानकारी, प्रयोग विधि और यंत्र व्यवस्था के आधार पर विद्युत, ईथर आदि शक्तियों से प्रत्यक्ष लाभ उठाया जाता है, ठीक उसी प्रकार स्पाइनल कालम स्थित प्राण ऊर्जा का उन्नयन करके शरीर की अपरा प्रकृति की प्रचण्ड शक्तियों से लाभान्वित हुआ जा सकता है।


थियोसोफिकल सोसायटी की जन्मदात्री मैडम ब्लैवेटस्की के अनुसार स्पाइनल एक्सिस-सुषुम्ना और कुँडलिनी का उन्होंने अन्योन्याश्रित संबंध है। कुण्डलिनी को उन्होंने विश्वव्यापी विद्युत शक्तिकास्मि कइलैक्ट्रिसिटी नाम दिया है उसकी विवेचना विश्व विद्युत के समतुल्य चेतनात्मक प्रचण्ड प्रवाह के रूप में किया है। सरपेंट फायर, द वायस ऑफ साइलैंस, फायरी पावर तथा वर्ल्ड मदर भी इसी के नाम है। सुप्त सर्पिणी की तरह यह मेरुदण्ड के निचले सिरे के मूलाधार केन्द्र में सोई पड़ी है। स्पाइनल कार्ड या स्पाइनल एक्सिस मेरुदण्ड का ही नाम है जिसमें एक प्रकार का विद्युत द्रव पदार्थ भरा है। मूलाधार चक्र से मेरुदण्ड मार्ग में जो शक्ति प्रवाह चलता है वह पेंच की चूड़ी की तरह कुण्डलाकार होता है। इसलिए इसे कुण्डलिनी के नाम से जाना जाता है। प्रसुप्त स्थिति में पड़ी-पड़ी यह विष उगलती रहती है। वासना की अग्नि को शाँत नहीं होने देती। ऐसी स्थिति में वह शरीर और मन की दिव्य सम्पदाओं का विनाश ही करती है। जाग्रत होकर सहस्रार तक पहुँचने और सोम संपर्क में आने पर ही समाधान होता है।


र्स्टनवर्ग स्थिति ‘रिसर्च फाउन्डेशन फॉर ईर्स्टन विजडम एण्ड वैर्स्टन साइंस’ में मानवी काया की प्रसुप्त क्षमताओं को उभारने के प्रयोग परीक्षण चल रहें है। इस संस्था में अनुसंधानरत मूर्धन्य वैज्ञानिकों के अनुसार कुण्डलिनी साधना में बिजली की दो धाराएं काम करती है। दोनों के मिलने पर ही शक्ति प्रवाह बहता है। इन दोनों को सही दिशा देने एवं बाहर भटक कर उत्पात मचाने से रोकने का काम स्पाइनल कालम की पोली रज्जु ही करती है। यही वह राजमार्ग है जिसके अंदर स्नायु तंतु केन्द्रीभूत होकर चक्रों के रूप में दृष्टिगोचर होते है। कुण्डलिनी जागरण में इन चक्रों की विद्युत शक्ति और स्नायु प्रवाह को प्रभावित एवं सक्रिय किया जाता है।


शरीर शास्त्र के अंतर्गत मेरुदण्ड संचार संस्थान का थोड़ा सा परिचय ऊपर की पंक्तियों में इसलिए दिया गया है ताकि स्थूल शरीर की संरचना से मिलते जुलते सूक्ष्म शरीर की उपयुक्त कल्पना कर सकना साधना मार्ग के पथिकों के लिए सरल हो सके। सुषुम्ना तथा दूसरी अन्याय नाड़ियों का अस्तित्व प्रत्यक्ष शरीर में भी है और उससे इस काय कलेवर के महत्वपूर्ण चेतनात्मक प्रयोजन सिद्ध होते है। ठीक इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर के मेरुदण्ड क्षेत्र में ऐसी दिव्य विद्युत धाराएं प्रवाहित होती है। जो चेतना के उच्च स्तरों को प्रभावित करती और बल देती है। साधना-ध्यान चेतना द्वारा संग्रहित प्राण विद्युत के माध्यम से की जाती है। यही वह और औजार है जो सूक्ष्म शरीर के विभिन्न अवयवों में हलचल और उलट-फेर प्रस्तुत करता है। ध्यान-धारण, संकल्प शक्ति, एकाग्रता, प्राण-प्रवाह, भाव संवेदना, प्रगाढ़-निष्ठा जैसी अध्यात्म प्रयोजनों की पूर्ति में सुषुम्ना साधना का असाधारण योगदान रहता है।


ध्यान-धारण में मेरुदण्ड सीधा करके बैठने का विधान है। प्राणायाम में इड़ा-पिंगला के माध्यम से प्राणवायु को ग्रहण करने और छोड़ने का उपक्रम चलता है और कुँभक द्वारा सुषुम्ना में उस दिव्य ऊर्जा को धारण किया जाता है। कुण्डलिनीयोग में मूलाधार और सहस्रार के मध्यवर्ती आदान-प्रदान का पथ प्रशस्त करने में सुषुम्ना मार्ग को ही प्रधान भूमिका रहती है। इसलिए उसे देवयान मार्ग भी कहा जाता है। सुषुम्ना साधना अपने आप में एक योग साधना है। उसे कर पाते हैं, भौतिक सिद्धियों एवं आत्मिक ऋद्धियों का लाभ उठाते है।

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